किशोर पारीक "किशोर"

किशोर पारीक "किशोर"

किशोर पारीक "किशोर" की कविताओं के ब्लोग में आपका स्वागत है।

किशोर पारीक 'किशोर' गुलाबी नगर, जयपुर के जाने माने कलमकार हैं ! किशोर पारीक 'किशोर' की काव्य चौपाल में आपका स्वागत है।



शनिवार, जनवरी 01, 2011

पतंग और दुनियादारी

पतंग और दुनियादारी


नील गगन के विस्तृत नभ पर, पंतग उडी है इधर उधर
सर- सर- फर-फर-सर- सर-फर-फर -सर- सर-फर-फर -सर- सर-फर
जब तक स्वांसों के माझें संग, इसकी यारों बनी रहे
हरसाए हम देखो तब तक आकाशों मैं तानी रहे
पवन बह रही कितनी सुन्दर, फिर भी क्यों हिचकोले हैं
होडवाद के चक्कर में तो, लगतें ये झकझोलें  हैं
पवन रहे अनुकूल इसी पर रहता है कन्ना निर्भर
झोंका नीचे खाने पर, लगने लगता हमको डर
पक्की सद्दा के संग रब हम, तेज़ स्वभाव को    बांधेगे
देर तलक अपना कन्कोवा, आसमान में में टांगेंगे
केवल तन चखी चाहो तो कारलो इसको इधर उधर
सर- सर- फर-फर-सर- सर-फर-फर -सर- सर-फर-फर -सर- सर-फर
नील गगन के विस्तृत नभ पर, पंतग उडी है इधर उधर

सूत्र हमारे हाथों में पर मन  पंतंग ज्यों डोल रहा
पेच लड़ने कोई आया तो भिड़ने को बोल रहा
अक्सर छोटों को बड्कों से , हमने तो कटते देखा
पिसल्ची को बड़ी ढाल से, बचते और भागे देखा
खिंच जायेगी झट से भैया, लालच में आओगे गर
दूर रहो दंगल बाजों से निरपेक्ष भाव से देखो भर
तब  तक कनखी उडती रहती, जब तक डोरी हाथ है
पतंग डोर का चोली दामन, जैसा होता साथ है
इक बिन दूजे ही होती, बिलकुल नहीं कदर
 सर- सर- फर-फर-सर- सर-फर-फर -सर- सर-फर-फर -सर- सर-फर
नील गगन के विस्तृत नभ पर, पंतग उडी है इधर उधर

मझां होता तेज़ स्वाभाविक, किरच काच की रहती है
बेचारी सादा जुल्मों को मूक हुई सी सहती है
कांफ पतंग की रीड लचीली, वही पतंग की शान है
अकडपना और कड़कपना तो, मुर्दों की पहचान है
सुन्दरता के चक्कर में तुम, कई जोड़ की लाओगे
बीच भंवर में फँस जाओगे, रोवोगे चिल्लाओगे
मोह छोड़ दे रंगों का तो, खुश रहे हर नारी नर
सर- सर- फर-फर-सर- सर-फर-फर -सर- सर-फर-फर -सर- सर-फर
नील गगन के विस्तृत नभ पर, पंतग उडी है इधर उधर


किशोर पारीक" किशोर"

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें